Thursday, April 29, 2010

परम पूज्य लाला जी साहब का वसीयतनामा


"अल्लाह पाक हमारी नीयतों को दुरुस्त फरमावे और हमारा अंजाम हमारे पेशवाओं और पीरानेउज्जाम के तरीके पर उनके एत्कादात के साथ हो.आमीन. आमीन."
जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है. न मालूम किस वक़्त सांस वापस न आये. इसलिए चन्द बातें बतौर वसीयत के एहितियातन लिख कर इस उम्मीद पर छोड़ता हूँ कि मेरे बाद मेरी सुल्वी व रूहानी औलाद, अगर अल्लाह ताला उनको तौफीक और हिम्मत अता फरमावे, तो उस पर कारबंद हों और तौफीक सिर्फ "उस" ही के हाथ में है.
(दस्तखत) फकीर रामचंद्र
२३ अक्टूबर, सन १९३० ईस्वी

वास्ते वरखुरदार जगमोहन नारायण के-
१.पहले ज़ज्ब और उसके बाद सुलूक के तरीके को तय करके तकमील के दर्जे तक पहुंचना चाहिए और यह काम सिर्फ तुम्हारे मुर्शद से ही निकलेगा. काश अगर तुमको मौका न मिले तो जब और जिस वक़्त इमदाद गैबी तुम्हारी तबियत को उभारे तो फिर तुम्हारे भाई ब्रज मोहन लाल (अल्लाह ताआला उसकी उम्र में बरक़त अता फरमावें) से ज्यादह शफ़क़त करने वाला नहीं मिलेगा. लाजिम है कि उसकी इताअत में फर्क न करना और दिल व जान से लग कर इस तरीके की तकमील हासिल कर लेना. मुझको भरोसा है कि वह अज़ीज़ तुम्हारे वास्ते कोई कसर नहीं रखेंगे.
२.जहाँ तक मुर्शदी व मौलाई ज़नाब हज़रात किबला का इशारा मुझको दिया गया है कि मेरी औलाद में बरखुरदार जगमोहन का पैदायशी अख़लाक़ दुरुस्त है और लतायफ़ में से लतायफ़ कल्ब तालीम से ही जाकिर है, लेकिन मेरी दानिस्त में ज़ज्बे की ज़ेहत उसकी नातमाम है. उसको हासिल करनी चाहिए.
वहबी अख़लाक़ और कसबी अख़लाक़ में फर्क है. वहबी में ज्यादह तालीम तलकीन की ज़रुरत नहीं होती. बर खिलाफ इसके कसबी में बहुत तजुरबों और मशक्कतों के बाद यह बात नसीब होती है,जिसमे अन्देशह गिरावट का भी रहता है.अल्हम्दलिल्लाह कि वहबी अख़लाक़ के लिए विशारद हज़रत क़िबला ने फरमाई. पीरन ए उज्ज़ाम के तुफैल में अल्लाह पाक इस नियामत के साथ उसका खैर अंजाम बखैर फरमावे.
अज़ीज़ मजकूर शूकराना इस नियामत का अदा करते रहें, और अपने आप को हमेशा आजिज़ समझें, क्योंकि नियामत का देने वाला मुख्तार है कि जब चाहता है, अपनी दी हुई नियामतों को वापस ले सकता है.
३.इस आजिज़ फकीर ने फल्सफह और मुख्तलिफ मजहबों के अकीदों की,जहाँ तक कि मेरे इल्म ने मुझको इमदाद की, छानबीन की लेकिन आखिर को पीरान-ए-उज्ज़ाम के एत्कादों और तरीकों को ऐसा पाया है कि जिन पर मजबूती के साथ कायम रहने से आखिर दम तक सलामती की उम्मीद है.
मैं कह सकता हूँ कि इस वक़्त तक उन तरीकों और एतकादों का पूरा पाबन्द जैसा कि चाहिए, नहीं रहा है. लेकिन दिल से इकरार ज़रूर रहा है. अफ़सोस कि अहबाब और मेरे साथ चलने वालों में से एक ने भी ऐसी हिम्मत नहीं की, कि इन एतकादों को कबूल भी करता.
इसमें सरासर कसूर मैंने अपना पाया है कि अब तक तहरीरी बयान एत्कादों का उनके रूबरू नहीं रखा; हालांकि ज़बानी हमेशा मौके-मौके पर ज़िक्र करता रहा हूँ.मालूम नहीं कि किन किन अहबाब ने उनको कबूल और मंज़ूर किया.
ज़ाहिर है औलाद ताक़त और कदी कामद में अपने बुजुर्गों से नस्ल बाद नस्ल कमज़ोर ही होती चली आ रही है.इसी तरह रूहानियत और अखलाकी बातों में भी रोज़मर्रा गिरावट हो सकती है, मगर यह कायदा कुल्लिया नहीं है. अल्लाह ताआला की कुदरत महदूद नहीं है. जब चाहे कभी ऐसा जवां मर्द कमज़ोर माँ-बाप से पैदा हो सकता है कि पांच सौ वर्ष पहले हुआ हो.

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