Thursday, December 1, 2011

पूज्य पाद श्री गुरुदेव राणा जी साहब का व्यक्तित्व

 दीर्घ समयांतराल के पश्चात् कभी  कभी  एक ऐसा  दिव्य व्यक्तित्व  हमारे  बीच   में अवतरित होता है जो कि निर्विवाद रूप से किसी दूसरे  दिव्य  लोक  से आया हुआ एक विलक्षण   व्यक्तित्व   का  स्वामी   होता है जो कि  उस अति दूरवर्ती लोक   की दीप्ति,महिमा और शक्ति का कुछ अंश इस भौतिक संसार में लाता है.वह सम्पूर्ण भौतिकवादी मनुष्यों की भांति इस  भौतिक  संसार  में विचरता है लेकिन वह इस नश्वर  भूमि का नहीं है. वह है एक अजनबी, एक यायावर, सूक्ष्म    सत्ता   का   प्रतिनिधि , जो मात्र एक रात्रि के लिए ही ठहरता है.
वह अपने आप को यहाँ के मनुष्यों के साथ में सम्बध्द करता है, उनके हर्ष विषाद का साथी बनता है. उनके सुख में सुखी और दुःख में दुखी होता है. परन्तु इन सबके बीच उसको हमेशा स्मरण रहता है कि वह कौन है, कहाँ से आया है और उसके इस मर्त्य भूमि पर आने का क्या उद्देश्य है? वह कभी अपने दिव्यत्व को नहीं भूलता. वह हमेशा स्मरण रखता है कि वह तेजस्वी, महान, एवं दिव्य आत्मा है.वह जानता है कि वह उस परम दिव्य सूक्ष्म क्षेत्र से आया है जहाँ किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि वह क्षेत्र स्वतः  दिव्य आलोक से आलोकित है.
ऐसी ही एक दिव्य दुर्लभ पवित्रात्मा का नाम है पूज्य पाद श्री गुरुदेव राणा जी साहब, जो कि सभी तुलना से परे हैं क्योंकि वह समस्त साधारण माप दण्डों और आदर्शों के परे  हैं.अन्यान्य  लोग  तेजस्वी हो सकते हैं लेकिन पूज्य साहब जी का व्यक्तित्व प्रकाशमय है.साधारण मनुष्यों की भाँति पूज्यवर ज्ञान के तथाकथित मंथन तक सीमित नहीं है,जो कि पूज्य साहब के जीवन दर्शन का अवलोकन करने से स्पष्ट द्रष्टिगोचर होता है. अन्य लोग शायद महान भी हो सकते हैं लेकिन यह तुलनात्मक व्याख्या उनके अपने वर्ग के दूसरे लोगों की तुलना में ही संभव है. परन्तु ये सब तुलनाएं तार्किक बातें हैं जो आज के समय में एक बहुत प्रचलित प्रक्रिया का एक हिस्सा है.कोई भी एक संत, साधारण या आम जनता से से अधिक पुण्यात्मा,पवित्र और निश्छल हो सकता है.
परन्तु इस सन्दर्भ में अगर हम प्रतिपल स्मरणीय पूज्य गुरुदेव साहब जी को देखें तो पायेंगे कि उनके सम्बन्ध में कोई तुलना नहीं हो सकती है. पूज्य गुरुदेव स्वयं अपने एक विशिष्ट वर्ग के हैं. वे उस दिव्य स्तर के हैं जो हमारी मन बुध्धि और तर्कों से परे है, न कि इस भौतिक सांसारिक स्तर के माप दण्डों के अनुसार. वह उस सूक्ष्म सत्ता के प्रतिनिधि  हैं जो कि एक पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को परिपूर्ण करने के लिए उस सूक्ष्म लोक से इस नश्वर संसार में अवतरित हुए हैं. कदाचित हममें से  कोई शायद ही जान पाया हो अब वे हमारे मध्य दीर्घकाल तक नहीं रुकेंगे....
पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में मुझे भी  अनवरत ४-५ वर्षों तक रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ,और वे घड़ियाँ कब गुजर गयी पता ही नहीं चला,बस आज एक ही बोध होता है कि मिथकों के अनुसार पारस अपने संपर्क में आने पर लोहे को सोना बना देता है किन्तु हमारे पूज्य गुरुदेव तो वो पारस मणि हैं जिनके संपर्क मात्र से ही सभी प्रकार से कल्याण हो जाता है और उसके लिए लोहा होने की कोई अनिवार्यता भी नहीं है.हमारे सत्संग के प्रत्येक सत्संगी के ढृढ़ विश्वास की तरह, मेरा भी यह अटूट विश्वास है कि श्री गुरुदेव की मुझ पर असीम अनुकम्पा रही है और उन्होंने इस अकिंचन के बड़े से बड़े अपराधों पर पर्दा  डाल  कर सिर्फ और सिर्फ अपनी अहेतुकी कृपा और वरदहस्त बनाये रखा है और पूज्य श्री  इस असीम अनुकम्पा से आज भी हम सबका कल्याण कर रहे हैं.
धन्य है वह धरा जिसने ऐसी परम विभूति को जन्म दिया,धन्य हैं वे लोग जो पूज्य श्री से लाभान्वित हुए और धन्य हैं वे कुछ लोग जिन्हें   उनके पाद पद्मों में बैठने का सौभाग्य मिला था.ऐसी दिव्य  विभूति के आगमन पर प्रकृति स्वयं आनंद और उल्लास प्रकट करती है और उनके महाप्रयाण पर रूदन और क्रंदन कर विलाप करती हैं.

Tuesday, October 11, 2011

ख्वाजा बायजीद बास्तामी साहब

Bayazid Bustami, also known as Abu Yazid Bistami or Tayfur Abu Yazid al-Bustami, (804-877 AD) was a Persian Sufi born in Bastam, Iran.

The name Bastami means "from the city of Bastam". Not much is known of his childhood, but Bayazid spent most of his time in isolation in his house and the mosque. Although he remained in isolation, he did not isolate himself from the company of Sufis. He welcomed people into his house to discuss Sufism. Bayazid also led a life of mysticism and asceticism and renounced all worldly pleasures in order to be one with God. Ultimately, this led Bayazid to a state of "self anhiliation", which, according to Sufism, is the only state a person could be in order to be closest with God. Bayazid became known as the first "intoxicated" Sufi because of the openness of his expressions he felt towards God (shatahat). Bayazid is regarded as being one of the most influential mystics of his period.

Bayazid Bastami emphasized the importance of ecstasy, referred to in his words as drunkenness (sukr or wajd), a means of self-annihilation in the Divine Presence. Before him, Sufism was mainly based on piety and obedience and he played a major role in placing the concept of divine love at the core of Sufism.

Bastami was one of the first to speak of "annihilation of the self in God" (fana fi 'Allah') and "subsistence through God" (baqa' bi 'Allah). The "annihilation of the self" (fana fi 'Allah') refers to disregarding everything in this world because of one's love towards God. When a person enters the state of fana it is believed that one is closest to God. His paradoxical sayings gained a wide circulation and soon exerted a captivating influence over the minds of students who aspired to understand the meaning of the wahdat al-wujud, Unity of Being.
When Bayazid died he was over seventy years old. Before he died, someone asked him his age. He said: "I am four years old. For seventy years I was veiled. I got rid of my veils only four years ago.”

One day, a heavenly voice reverberated through the sky to real lover of God, Bayazid Bustami. He heard the ethereal voice saying this, “What you desire, you ask for it, your wish will be fulfilled.” Bayazid was genuine lover of God and did not desire anything except the divine vision of God. He said with humility after bowing his head,”Whatever God wants to give me as per His desire is acceptable to me and I will be indebted to Him for His favour.”

That heavenly voice said,” I am very happy with you and grant you both the worlds. We grant you both material and eternal world everything between them. Bayazid was interested in gifts but the Giver of gifts, said,”My God, the giver of everything, knows the desire of my heart.” That heavenly voice echoed,”Bayazid, you ask us from us. If we ask you from you, then ?”

Bayazid understood that this is the voice of his beloved. He cried with ecstasy, “O my beloved, I speak truth with my heart that if you ask me to jump in hell on the judgement day, I will willingly do so. My cold sigh for you will dampen the fire of hell, because I know that fire of hell is just like fire of extinguished coal in front of fire of your love.”

Bayazid could not finish his speech and the heavenly voice said, “Bayazid, we promise that you will really witness us when you search for us.”

Bayazid memorable quotations:

I never saw any lamp shining more brilliantly than the lamp of silence.

I went to a wilderness, love had rained and had covered earth, as feet penetrate snow, I found my feet covered with love.

I stood with the pious and I didn’t find any progress with them. I stood with the warriors in the cause and I didn’t find a single step of progress with them. Then I said, ‘O Allah, what is the way to You?’ and Allah said, ‘Leave yourself and come.’

Thursday, September 1, 2011

सूफ़ी मत का महान केन्द्र : श्री रामाश्रम श्यामनगर

कानपुर- फ़र्रुखाबाद रोड पर काली नदी के सुरम्य पूर्वी तट पर बसा रामाश्रम सूफ़ी संत मत का एक प्रमुखः केन्द्र है। आज विश्व विख्यात रामाश्रम श्यामनगर की स्थापना महान सूफ़ी संत श्री राम सिंहः राणा जी साहब ने की थी। मूलतः रामाश्रम सूफ़ी मत की नक़्शबन्दिआ परम्परा पर आधारित है। रामाश्रम सतसंग का मूल सिद्धान्त आस्था और संस्कृतियों का मिलन है , जो कि उस निराकार परमात्मा की प्राप्ति के लिये दुनिआ को त्यागने या एकान्त प्राप्ति के लिये पहाड या वन मे जाने की आवश्यकता नही है।वरन रामाश्रम सत्संग ग्रहस्थ जीवन का पालन करते हुए समर्थ् सदगुरु की मदद से ईश्वर् प्राप्ति का मार्ग बताता है। इस सिद्धान्त को आगे करते हुए श्री राणाजी साहब् ने रामाश्रम श्यामनगर को अपनी कर्म स्थली के रूप मे चुना और जीवन पर्यन्त मानव मात्र की सेवा मे लगे रहे। पूज्य राणा जी साहब् ने परमार्थ् के प्रति अपनी सोच को अत्यधिक प्रभावशाली तरीके से व्यक्त किया जिसने आपको एक महान सूफ़ी संत के रूप मे गौरवान्वित किया।पूज्य राणाजी साहब् जी ने २० जून २०१० को १०२ वर्ष की आयु मे महा समाधि ले ली। राणा जी साहब् का समाधि मन्दिर श्री रामाश्रम मे बना हुआ है जो कि आज समस्त भारत वर्ष एवं विदेशों मे उनके अनुयायियों के बीच गहन श्रद्धा का केन्द्र है।राणा जी साहब् का समाधि मन्दिर एक बडे प्रागन के मध्य मे स्थित है।जहां आने वाले हर श्रद्धालु को एक अनिर्वचनीय आनन्द एवं शान्ति की प्राप्ति होती है।समाधि के साथ् मे लगा हुआ भवन् बना हुआ है, जो कि जीवन पर्यन्त श्री राणा जी का निवास् स्थान रहा है और श्रद्धालु साधकों के मध्य श्री राणा जी निवास् के नाम से लोकप्रिय है।श्री राणा जी निवास् मे साधकों के आवास, भोजन एवं अन्य आवश्यक सुविधायें उपलब्ध रहती हैं और देश विदेश के श्रद्धालु एवं साधक इस दिव्य स्थान पर आकर दिव्य आनन्द एवं गुरु कृपा से लाभान्वित होते हैं।

Tuesday, May 31, 2011

प्रथम निर्वाण दिवस

पूज्य गुरुदेव का प्रथम निर्वाणदिवस ९,१०,११ जून २०११ को श्री रामाश्रम में आयोजित किया जा रहा है.श्री रामाश्रम की पुण्य भूमि पूज्य गुरुदेव की साधना स्थली और कर्म भूमि रही है जहाँ पर रह कर पूज्य गुरुदेव से अनगिनत लोग लाभान्वित हुए। और हर किसी को मिला पूज्य श्री का स्नेहिल और वात्सल्यमय प्यार.....एक अनिर्वचनीय एवं अवर्णनीय व्यक्तित्व जो कि हम सब के दिलो दिमाग में रच बस गया है।
यह हमारा अहो भाग्य होगा कि हम सब इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव की दया कृपा से फैज्याब हों.उनके दर पर हम हाजिरी दे सकें.सम्मिलित हो सकें उस अमृत वर्षा में जो हब सबके लिए कल्याण कारी है.